Thursday, June 17, 2010

गुरु वरण

जिव्या दग्धं पस्न्नेम, हस्तो दग्धो प्रतिग्राहत


मनो दग्धं पर स्त्रिझिः, कायम सिद्धि वरानने


शाश्त्र मत है की अशुद्ध खाना खाने और दुसरे की निंदा से जीभ जल जाता है छल, कपट, झूठ से प्यारादी करने से हाथ जलता है पराये स्त्री प्रति रूचि लेने से मन जलता है, फिर एसे साधक हो तो सिद्धि कहा मिल सकती है


साधक का मन एसा हो की गुरु के प्रति श्रद्धा भाव, प्रेम भाव, सम्मान और निष्ठां लिए हो तभी साधना में सफलता मिल सकती है अक्सर देखा जाता है की साधक अपनी galtiyo को छुपाते है और अनुभूति चाहते है दिन भर अपनी भौतिक जीवन के निर्वाह में छल-कपट और दंभ भरा जीवन जीता है यदि इससे भी समय मिला तो परनिंदा और गुरु के प्रति भी आलोचना करने में नहीं चुकता की गुरूजी ने तो ये कहा था की अमुक फल की प्राप्ति होगी, अमुक साधना में अमुक प्रकार से अनुभूति मिलेगी पर एसा कहा यह तो बोलने की बाते है वास्तव में एसा होता नहीं कुछ एस प्रकार की बाते अक्सर सुनने को मिलता है यहाँ पर गुरु के प्रतिश्रद्धा और समर्पण कहा गया और अनुभूति का उम्मीद रखते है सर्वप्रथम तो गुरु पर विश्वास हो तभी साधना पर विश्वाश होगा। यदि गुरु मंत्र दिया है, व्याख्या किया है तो वही सत्य है और इसमे संदेह नहीं होना चाहिए अपने भौतिक जीवन के लिए अपना कार्य भी करना आवश्यक है मन, बुद्धि और विवेक से कार्य करना चाहिए क्योकि आपका परिवार है आपके ऊपर जिम्मेदारी है जिसे पूरा करना भी आपका कर्त्तव्य है,पर साधना में सफलता के लिए जिव्या गुरु मानता मन से गुरुदेव के श्री चरणों मेलगा रहे और एसा हो गया है की जो भी कार्य सम्पादित कर रहा है, यह निम्मित कार्य है तो उसी दिन से साधना में अनुभूति मिलना प्रारम्भ हो जावेगा जिसके मन में दृढ विश्वास होता है जो पूर्णता के साथ गुरु आगया का पालन करता है और निरंतर साधना में रह कर पूर्णता, सफलता और श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है, एसे ही साधक एक टिमटिमाते दीपक से प्रकाशवान,उर्जावान.प्रकाशपुंज बन जाता हैfir समाज , मानव कल्याण और विश्व बन्धुत्वा के लिए kam करता है तथा शांति का एक नया आयाम स्थापित करता है, एसे संतान के माता-पिता धन्य है जो कुल और गुरु का नाम र्प्शन करता है वास्तव में मानव वह होता है जो अपना पूरा प्रयत्न करता है और सफलता प्राप्त करता है कोई भी कार्य या सफलता जरुरी नहीं की पहली बार में मिले, दूसरी, तीसरी बार या कई बार दुहरानी पद सकता है, लेकिन जब भी सफलता मिलेगी उस क्षेत्र में आपको पूर्णता प्राप्त होगी


तेनसिंह को हिमालय की शिखर पर चड़ने के लिए २६ बार लगे वही महाकाली उपासक रामकृष्ण परमहंस जी जिसके साथ महा कलि बाते किया करती थी, और प्रत्यक्ष भोग स्वीकार करती थी, क्या पहली बार की साधना और समर्पण में एसा हुवा होगा ? परमहंस को भी १७ बार साधना करना पड़ा। स्वमी विवेकानंद प्रखर, विलक्षण गुणों से संपन्न हुए उन्होंने भी कुंडली जागरण के लिए साधना को १४ बार दुहराया। हिम्मत नहीं हारना चाहिए, यदि थान लिया है की अमुक साधना गुरु नेबताया है और मुझे करना है तो बस मुझे करना ही है एक बार में हताश होने से सफलता नहीं मिलेगी और अक्सर साधको में देखा जाता है की एक बार में सफलता मिलने पर साधक खिन्न और उदासीन हो जाता है मन में प्रश्न उठता है की इसमे सफलता मिले तो दूसरा करे या तीसरा करे उसमे भी सफलता नहीं मिली तो समय ख़राब हो गया पर एसा कदापि नहीं होता एसे कुंठित विचार से ही साधक धीरे-धीरे एस मार्ग से अपने आप को अलग कर लेता है




2 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है , वर्तनी की अशुद्धियों को सुधरने की जरुरत है.शुभ कामनाएं.

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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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