Saturday, June 12, 2010

नया आयाम

सुप्रभात होते ही निशा, सूर्योदय की लालिमा रौशनी के साथ समाप्त हो जाता है और चारो तरफ प्रकाश व्याप्त होता है। अंधकार कोसो दूर चला जाता है,यही वास्तव में जीवन का नवीन आयाम है। अंधकार मृतप्रायः है जिसे मिटने क लिए, अम्रितात्वा प्राप्ति के लिए माध्यम आवश्यक है। अँधेरे में पथिक चल तो सकता है परन्तु उद्देश्य प्राप्ति क लिए भटकता रहता है। वही एक दिया सलाई का भी रौशनी हो तो कुछ दूर तो जाया जा सकता है.लेकिन इससे मंजिल तक नहीं पंहुचा जा सकता, वह और भी माध्यम हो सकता है जिसके सहारे पूरा मार्ग प्रसस्त हो सकता है। रौशनी प्राप्त करने के अनेको अनेक साधन है पर वो सिमित है। वही सूर्य देअदिप्त्मन है जहा अँधेरा नहीं हो सकता और वही कार्य गुरु का है जो शिष्य सनुदय के त्रिताप को दूर कर अंधकारमय जीवन में प्रकाश भर देता है।
गुरु शब्द ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना होता है। janm से manav -मूत्र से भरा जीवन जीता है auor समसान की यात्रा जन्म भर कर अपना इहलीला समाप्त कर देता है। यह कार्य तो पशु पक्षी भी करते है । संतान उत्पत्ति कोई विशेष क्रिया नहीं है। विशेष क्रिया तो ये है की जीवन में एक योग्य मर्दार्सक मिले, गुरु मिले,जो एस जीवन से ऊपर उठा सके , नविन चिंतन पैदा कर सके। जिससे मानव अपने जीवन को समझ सके। जिस प्रकार गरुड़ को देख सर्प अपने आप में निः:संदेह असहाय समझता है ओउर भागने लगता है ठीक उसी प्रकार गुरु के ज्ञान ,चिंतन,मीमांसा के माध्यम से मानव में व्याप्त कलुसता भागने लगता है।
बाल्यकाल में माता गुरु होती है जो अपने बच्चो को अपना स्तनपान करवा कर जीवन देती है , फिर क्यावास्था का सञ्चालन पिता करता है ओउर ज्ञान की प्राप्ति हेतु पाठशाला में ज्ञान अर्जन की प्राप्ति करता है। यह मानव की पूर्णता नहीं कहलाती है पूर्णता प्राप्ति हेतु जीवन के तमाम उद्देश्यों को जानना होगा। जो एक सफल मर्ग्दार्सक ही बता सकता है। जन्म के बाद हम जीवन के आपाधापी में खो जाते है auor भूलभुलैया में जीवन का महत्वा खो बैठते है। हम एस विधान(तंत्र) कला को शिख सकते है जहा पूर्णता प्राप्त हो सकतअ है। में कोंन हु ? मेरा क्या समंध है ? ये जिज्ञासा का समाधान केवल गुरु ही करवा सकता है। मेरा समंध आज से ही नहीं है यह तो जन्म-जन्मंतरण से है , परन्तु हम भूल सा गए है, जिसे स्मरण करना होगा तभी कल्याण हो सकता है.हनुमान जी me जन्म से ही अनुपम शक्ति था जो समुन्द्र को लाँघ सकता था पर लंका गमन के पहले उसे बहन नहीं था ओउर जब स्मरण कराये गए तो हनुमान जी ने लंका में त्राहि-त्राहि मच दिया। हर मानव का सम्बन्ध परम सत्ता से है लेकिन हम भूलते चले जा रहे है क्योकि जब आदि कल में चराचर जगत जल मग्न था वह एक नाद(ध्वनि) हुए ओउर श्री बिष्णु का प्राकट्य हुवा auor नाभि में कमलदल के ऊपर ब्रम्हा जी विराजमान हुए ओउर श्रृष्टि का न्ज्र्मन का संकेत ब्रम्हा जी को हुवा तब ब्रम्हा जी ने सर्वप्रथम मानस पुत्र का निर्माण किया जो १६ हुए इसी से श्रृष्टि की रचना हुयी । आज कालांतर में हम अपने पूर्वज को भूलते जा रहे है जबकि हम सब अद्वितीय पुरुष के संतान है। जो हमारा उप नाम है। हम गर्व से कहते है की अमुक गोअत्र में उत्पन्न हिये है पर यदि कोई अमुक नाम का है तो उनके पिता है, ओर उनके भी पिता है ओउर वो भी किसी पिता के संतान है, आज प्रायः ३ या ४ पीढ़ी तक ही ज्ञात रहता है। आज अपने आप को स्थापित करने के किये कर्म करना होगा। कर्म के अनुशार नाम को विजय दिला सकते है। हम कह सकते है की में अमुक हु जो चिरकाल तक स्मरणीय रहेगा।
भगवन राम हुए ,कृष्ण हुए जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता उन्होंने अपने आप को गुरु के माध्यम से ही स्थापित किया ओउर अपने रिसियो को खोजा ओउर पूर्णता को प्राप्त किया । आज हम श्रेष्ठता को तभी प्राप्त करेंगे जब हम गर्व से कहेंगे की में अमुक रिसी के संतान हु ओउर मुझमे अमुक रिसी का रक्त कण दौड़ रहा है अब मुझमे न्यूनता नहीं आ सकता है। हमारे पूर्वज श्रेष्ठ हुए है भगवन रामचंद्र के मूल गुरु बशिष्ठ जी रहे जिन्होंने ज्ञान कराया की तुम्हे आगे विश्वामित्र के पास जाना है तभी पूर्णता को प्राप्त कर सकते हो। ठीक इसी प्रकार श्रीकृष्ण जी को गुरु संदीपन के पास जाना पड़ा आश्रम के कठोर नियमो का पालन करते हुए आश्रम में रहना पड़ा। तभी गुरु ज्ञान से पूर्णता मिली
आज ज्ञान के लिए विभिन्न गुरु हो सकते है जो आपको भौतिक जीवनइवान, धन, जमीं, परिवार चलने की गुण सिखा सकते है परन्तु इसके बाद भी एक विशिष्ठ गुरु की आवश्यकता है जो आपको पूर्णता दे सके जन्म-जन्मान्तरो के संबंधो को बता सके उस रिसी से मिला सके जो मूल है इसीलिए किसी संकल्प में अपने नाम क बाद गौत्र का उच्चारण किया जाता है उस रिसी को यद् किया जाता है auor शाश्त्र सम्मत है की यदि आपको गौत्र नहीं मालूम तो गुरु का नाम ले सकते है ओउर गुरु से बढ़ कर उपनाम का पहचान क्या हो सकता है? गुरु य्र्सा हो जो स्वयं ऋषियों से साक्षत्कार किया हो,जिनसे मिला हो ,वह तक पंहुचा हो तभी वह तक पंहुचा सकता है। इसके लिए गुरु का सानिध्य आवश्यक है, गुरु के श्री चरणों में ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। इसके लिए हमें उनके समीप बैठना होगा,साधक बनना होगा । में शिष्य नहीं कह रहा हउ क्योकि शिष्य बन्ने के बाद तो स्वतः ज्ञान (प्रकश) का उदय होना प्रारंभ हो जाता है। साधक बनना ही गुरु charano में समर्पित हने की पहली सीdi है। साधक को उन तमाम आचरणों को व्यवहार में लाना होगा जो गुरु को प्रिय है ओर आगया करी होना चाहिए। साधक को नें, प्रत्याहार कर उपासना करना होगा। उपासना का अर्थ ही होता है की निकट बैठना ओर अपने आपको विलीन कर देना ओर इs प्रवाह को देखकर ही गुरु अपना शिष्य वरण करता है.शिष्य बन्ने का तात्पर्य है सौभाग्य की प्राप्ति फिर एक प्रकाश पुंज ह्रदय में स्थापित हो जाता है। बीजारोपण की क्रिया हो जाता है। वास्तव में जीवन में गुरु मिले ओर अनुशरण कर सके यही जिज्ञासा hona chahiye .

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